पार्किंसंस रोग एक प्रोगेसिव न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है। अधिकतर बढ़ती उम्र के लोगों को अपनी चपेट में लेने वाली इस बीमारी के कारण चलने फिरने में तकलीफ का सामना करना पड़ता है। दरअसल, डोपामाइन हार्मोन के चलते शारीरिक मांसपेशियां अपना कार्य आसानी से कर पाती हैं। ब्रेन में पाए जाने वाले यह पदार्थ सबस्टेंशिया नाइग्रा नामक जगह से निकलता है। मगर वे लोग जो पार्किंसंस रोग से ग्रस्त होते हैं, उनमें सबस्टेंशिया नाइग्रा के सेल्स डैमेज होने लगते हैं। जब वे सेल्स 60 से 80 फीसदी डैमेज हो जाते हैं, तो उस वक्त पार्किंसंस रोग के लक्षण नज़र आने लगते हैं।
हांलाकि ताज़ा आंकड़ों की मानें, तो वे लोग जिनकी 40 या उससे कम है, उनमें इसकी दर 0.5 प्रति 100000 हैं। वहीं अन्य लोगों में 13.4 प्रति 100000 के हिसाब से ये बीमारी बढ़ रही है। पार्किंसंस रोग नर्वस सिस्टम के कार्य का प्रभावित करता है, जो पूरे शरीर को नियंत्रित करने में मदद करती हैं। शरीर में इस रोग के लक्षण धीरे धीरे नज़र आने लगते हैं। हाथों में कपकपी के अलावा मांसपेशियों में स्टिफनेस बढ़ने लगती है, जिससे चलने फिरने में भी मुश्किलात का सामना करना पड़ता है।
अल्जाइमर रोग के बाद पार्किंसंस डिज़ीज़ दूसरा सबसे आम पाया जाने वाला न्यूरोडीजेनेरेटिव विकार है। ये एक क्रानिक, प्रोग्रेसिव और डिजनरेटिव रोग है। इसके विषय में सन् 1817 में सबसे पहले डॉ जेम्स पार्किंसन ने जानकारी साझा की। उन्होंने इस रोग को शेकिंग पाल्सी के रूप में बताया गया। आंकड़ों के हिसाब से 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में पार्किंसंस डिज़ीज़ लगभग 1.2 फीसदी पाया जाता है। वहीं ऐसे लोग जिनकी उम्र 85 वर्ष से ज्यादा है, उनमें इसकी संभावना 4.5 फीसदी बढ़ जाती है।
पार्किंसंस रोग आनुवंशिक यानि जेनेटिक और एनवायरमेंटल दोनों कारणों से बढ़ सकता है। इसके अलावा कुछ वायरस भी पार्किंसंस को ट्रिगर करते हैं। इस रोग से ग्रस्त लोगों को चलने फिरने में तकलीफ का सामना करना पड़ता है और फिजिकल एक्टीविटी कम हो जाती है। दरअसल नर्वस सिस्टम में डोपामाइन की कमी के कारण इस समस्या का सामना करना पड़ता है। डोपामाइन ब्रेन के एक हिस्से यानि सब्सटेंशिया नाइग्रा से मिलता है। इस मांसपेशियां सुचारू रूप से कार्य करती हैं।
पार्किंसंस रोग के सभी मामले डायरेक्टली इनहैरिट नहीं होते हैं। आमतौर पर इस बीमारी के रोगियों में से तकरीबन 10.16 फीसदी फैमिली हिस्ट्री के कारण फर्स्ट डिग्री या सेकण्ड डिग्री से प्रभावित होते हैं। आम लोगों की तुलना में करीबी रिश्ता जैसे सिब्लिंग या बीमारी वाले माता.पिता में इस बीमारी का खतरा दोगुना हो सकता है। पार्किंसंस रोग के ज्यादातर मामले 65 वर्ष की आयु के बाद पाए जाते हैं। इसके अलावा ये रोग 30 और 40 की उम्र के लोगों को भी अपनी चपेट में ले सकता है।
डे टू डे लाइफ में रोटोनोन जैसे हर्बिसाइड्स और पेस्टीसाइड्स के कॉटेक्ट में आने से न्यूरोलॉजिकल नुकसान बढ़ने लगता है। इसके चलते बढ़ती उम्र के लोगों में पार्किंसंस का खतरा बढ़ने लगता है। इसके अलावा मैंगनीज, कॉपर और इंडस्ट्रीयल सॉल्वेंटस भी इस समस्या के जोखिम का कारण बनते हैं। वे लोग जो फार्मिंग करते हैं। अक्सर उन्हें कीटानाशकों का प्रयोग करना पड़ता है, जिसके चलते उन्हें इस समस्या का सामना करना पड़ता है।
पार्किंसंस रोग के कारण मसल्स में स्टिफनेस बढ़ने लगती है, जिसके चलते मांसपेशियों में हल्के से लेकर गंभीर दर्द का सामना करना पड़ता है। इस समस्या से ग्रस्त लोगों को चलने फिरने में तकलीफ होने लगती है।
इस समस्या से घिरे लोगों की नींद की गुणवत्ता कम होने लगती है। अजीबो गरीब सपने आना और बार बार उठना और रेस्टलेस लेग सिंड्रोम का सामना करना पड़ता है। इससे नींद बाधिम होने लगती है।
किसी भी शारीरिक गतिविधि को करने से पहले हाथ, उंगलियों, निचले अंगों, जॉ लाइन और जीभ में कंपकंपी का सामना करना पड़ता है। ये समस्या उम्र के साथ बढ़ने लगती है और अन्य लोग भी इसे नोटिस करने लगते हैं।
चलने, फिरने, उठने और बैठने में तकलीफ का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा खाना निगलना भी मुश्किल हो जाता है। हाथों को खोलना बंद करना, टैपिंग समेत सभी कार्यों की गति धीरे धीरे धीमी होने लगती है।
शरीर को हिलाने डुलाने में आने वाली तकलीफ के चलते शरीर का संतुलन बिगड़ले लगता है। अधिकतर लोगों को सीधा चलने में दिक्कत असने लगती है। पीठ को सीधा करके चलना मुश्किल हो जाता है, जिससे शरीर में लॉस ऑफ कॉर्डिनेशन की समस्या बढ़ने लगती है।
नर्वस डिसफंक्शन के चलते पूरे शरीर पर उसका प्रभाव नज़र आने लगता है। इसके चलते लो ब्ल्ड प्रैशर, सेक्सुअल डिसफंक्शन, कब्ज और ज्यादा पसीना आने की समस्या बढ़ सकती है। इसके अलावा स्मैल की कमी का सामना भी करना पड़ता है।
पार्किंसस के लक्षणों का पता लगाने के लिए डॉक्टर नर्वस सिस्टम कंडीशंस की जांच करते हैं। इसके अलावा रोगी को न्यूरालॉजिकल एग्जामिन किया जाता है और मेडिकल इतिहास को जांचा परखा जाता है। इसके अलावा लक्षणों को आधार बनाकर ही डॉकअर किसी नतीजे पर पहुंचते हैं।
अधिकतर मामलों में डॉक्टर रोगी को कार्बिडोपा और लेवोडोपा दवा देते हैं। इसके बाद अगर रोगी में परिवर्तन नज़र आता है, तो इस रोग की पुष्टि की जाती है। रोगी को पर्याप्त खुराक देने के बाद ही असर नज़र आने लगता है।
रोगी में लक्षणों की पुष्टि करने के लिए अधिकतर चिकित्सक एमआरआई और ब्रेन स्कैन की मदद लेते है। इसके ज़रिए समस्या के बारे में जानकारी एकत्रित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा ब्लड टेस्ट की भी सलाह दी जाती है।
इस रोग के उपचार के लिए लक्षणों के आधार पर दवाएं दी जाती हैं। दवाओं के अलावा शरीर के पोश्चर को ठीक करने और एनर्जी का स्तर बढ़ाने के लिए व्यायाम करने की भी सलाह दी जाती है।
डोपामाइन के स्तर को बढ़ाने के लिए दवाएं दी जाती है। कार्बिडोपा और लेवोडोपा नेचुरल केमिकल है, मस्तिष्ट में घुलकर डोपामाइन में बदल जाता है। इससे नर्वस सिस्टम का कार्य सुचारू हो जाता है और कम हो रही शारीरिक गतिविधियां सुचारू हो जाती है। कार्बिडोपा और लेवोडोपा पार्किंसन रोग के लिए सबसे असरदार दवाएं हैं। डॉक्टर की सलाह से दवा का सेवन करें। डोपामाइन एगोनिस्ट दवा से पार्किंसन बीमारी के लक्षणों को रोकने में मदद मिलती है।
डीप ब्रेन स्टिमुलेशन यानि डीबीएस सर्जरी के माध्यम से लक्षणों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इसके चलते ब्रेन के एक हिस्से में इलेक्ट्रोड लगाया जाता है, जिससे नर्वस सिस्टम अपने कार्य को सुखरू रूप से करने लगता है।
आहार में परिवर्तन लाना बेहद आवश्यक है। फाइबर, प्रोटीन और कैल्शियम से भरपूर खाना खाने से शरीर स्वस्थ बना रहता है। इसके शरीर को फिट रखने के लिए व्यायाम भी आवश्यक है। इससे पार्किंसंस के लक्षणों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है और रोग की रोकथाम करना आसान हो जाता है।
शरीर में संतुलन की कमी और मासंपशियों में बढ़ने वाली ऐंठन् पार्किंसन रोग के मुख्य संकेत है। इसके बाद कंपकंपी बढ़ने पर डॉक्टर से अवश्य संपर्क करें और डज्ञॅक्टरी जांच के बाद बताए गए उपचार को फॉलो करें।
अनुवांशिकता और बढ़ती उम्र के अलावा विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने से इस समस्या के बढ़ने ाक खतरा बना रहता है। इसके अलावा महिलाओं की तुलना में पुरूषों में इस रोग का जोखिम ज्यादा मात्रा में पाया जाता है।
डोपामाइन का लेवल कम हो जाने से इस समस्या से ग्रस्त लोग तनाव का शिकार हो जाते हैं। हर दो में से 1 व्यक्ति एंग्जाइटी से ग्रस्त होता है। ऐसे लोगों में आलस और थकान बढ़ना स्वाभाविक है, जिसके चलते वे किी गतिविधि में हिस्सा नहीं ले पाते हैं
इस रोग का असर कार्यक्षमता पर दिखने लगता है। मगर ऐसे लोग दवाओं की मदद से अपने कार्य को नियमित रूप से कर सकते हैं। दवाओं का निरंतर सेवन और कार्य के घंटों में लचीलापन लाकर कार्य करने में मद मिल सकती है।